ऐसे ही थोड़ी कोई मन में उतरता है
ये तो किश्तो-किश्तो में अंदर तक जाता है
कभी देखतें हुए पकड़े जाने से लेकर
यूं ही देखतें-देखतें बिनां आंखो को गिरे त्रिप्त होकर मन में उतरता है
कभी हाँथ से हाँथ अनजाने में छुंने से लेकर
नर्म उंगली से की गई हर शरारत के बाद ऋओ से अंदर तक उतरता है
अपने लिए वह लि गई पहली आवाज से लेकर
घंटो ना बोलीं गई हर एक बात से धीरे-धीरे सुरों की माफीक अंदर तक उतरता है
कभी वह पास आकर बैठे वह ख्वाईश से लेकर
उसकी खुशबू मात्र से पहिचान ने के सफर में हवा की तरह अंदर तक जाता है
ऐसे ही थोड़ी कोई मन में उतरता है
ये तो किश्तो-किश्तो में अंदर तक जाता है
फिर कभी एक दिन
संजोये हुए सब एहसासो के बाद
एक दिन वह शख़्स पसलियों को फाड़ के अपने को जुदा कर वह अपराधी की तरह निकल भागता है
जैसे कि उसे पता ही नहीं की अंदर आने का रास्ता था
शायद इसी लिए आँख नम हो जाती है, शरीर कांप जाता हैं और मन टूट कर दानों की तरह बिखर जाता है
क्योंकि
किश्तो का हिसाब समज ने वाले शरीर को पता नहीं होता कि एक साथ कर्ज लौटाना क्या होता है
क्योंकि
ऐसे ही थोड़ी कोई मन में उतरता है
ये तो किश्तो-किश्तो में अंदर तक जाता है